जिंदगी चलते जाने का नाम है रूकना नहीं चलते ही जाना इसकी फितरत है.. जो चलता रहा वो सिकंदर बन गया जो रूक गया वो निराश हो गया अपने जिंदगी की जंग हार गया.. हर कोई चलना चाहता है यहां हर किसी के अपने सपने है अपनी मंजिल है... एक अजब सी भागदौड़ है पता नहीं क्यों सब भागे जा रहे है एक के पीछे दूसरा दूसरे के पीछे तीसरा और तीसरे के पीछे चौथा.. सब दौड़ लगा रहे है पता नहीं कौन कहां जाकर रूकेगा क्या पाना चाहते है दुनिया को क्या दिखाना चाहते है.. मैं भी दिल्ली अाया था आज से लगभग 12 साल पहले हाथ में एक सुटकेस और अपना बिस्तर टांगे लिच्छवी एक्सप्रेस से... मां को रोता हुआ छोड़कर.. कितना रो रही थी मां जिस दिन मैं दिल्ली आ रहा था... नाजाने क्या डर सता रहा था उसे... वो मेरे साथ मुझे छोड़ने रेलवे स्टेशन आना चाहती थी मगर मैने मना कर दिया था... आज भी याद है जब मैने मां को सोनपुर स्टेशन से टेलीफोन किया था तो वो मेरी आवाज सुनकर रो रही थी.. पता नहीं जब से मैं घर से निकला था तब से ही वो रोए ही जा रही थी... मै भी अपने को रोक नहीं पाया और फूट फूटकर रो पड़ा था बात करते हुए... फिर जैसे तैसे ट्रेन आइ तो उसमे सवार हो गया दिल्ली आने के लिए.. रास्ता खाने बात करने और दिल्ली शहर के रोमांच में कट गया... सुबह के चार बजे दिल्ली उतरकर सबसे पहले मां को फोन किया की हम पहुंच गए सही सलामत फिर ऑटो ढूंडा और अशोक विहार आ गया... लेकिन ऑटो वाले ने हमे बीच रास्ते में ही छोड़कर चंपत हो गया.. सुबह रोड पर हम अकेले टहल रहे थे हाथ मेंं सामान लेकर... फिर किसी से पता पूछा तो पता चला की घर तो यहां से काफी दूर है तो हमने रिक्शा ले लिया...लेकिन रिक्शा पर बैठते ही मेरी काली पैंट जो मुझे बेहद पसंद थी वो फट गई.. अच्च्छा स्वागत किया था इस नए और अनजान शहर ने... खैर जैसे तैसे हम घर ढ़ुंढ कर पहुंचे फिर कुछ देर वहां रककर अपने नए आवास की ओर निकल गया... नया आवास जी नया आवास आज से यहीं रहना है यही पे पढ़ाई और यहीं से आगे का सफर तय करना है