बुधवार, 1 अप्रैल 2020

महामारी का 'मुकुट'

                                      महामारी का 'मुकुट' 

कोरोना का अर्थ यूँ तो लातीनी भाषा में मुकुट होता है क्योंकि इस वायरस के चारों ओर कॉटा निकला होता है, लेकिन ना चाहते हुए भी ये मुकुट आज लाखों लोगों के सर पर सज गया है.. जिसके कारण इस महामारी में सभी लोग अपने-अपने घरों में कैद होने पर मजबूर हो गए है..ऐसा लगता है जैसे सारी दुनिया थम सी गई है, जिंदगी की रफ्तार पर ब्रेक लग चुका है.. एक अदृश्य जीवाणु जिसने पूरे विश्व को खतरे में ला दिया है, वो डर बनकर सबके दिलों में बैठ गया है, चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है, भगदड़ जैसी स्थिति है सभी हैरान, परेशान है
             सारे मंदिर, मस्जिद, गुरूद्व्ारे और चर्च बंद हो चुंके है और ऐसी स्थिति में सबके घर ही पूजा-पाठ, अराधना के केंद्र बन चुके हैं... ऐसी स्थिति में हिम्मत हारने से कुछ नहीं होगा घर पर रहकर ही सारी मानवता को बचाने के लिए प्रार्थना करनी होगी, हिम्मत हारने से कुछ हासिल नहीं होगा... इस वायरस से हमें लड़ना होगा और जीतना भी होगा.. बस धैर्य और साहस बनाकर एकजुटता से एक दूसरे को मदद करते हुए इस वैश्विक विकटता को मात देनी होगी..
इस संकट काल में जब हम घर में कैदी की तरह बंद है,तो सारे पशु, पक्षी, खुशी से हंस रहे हैं खिलखिला रहे है और अपनी आजादी का जश्न मना रहे है क्योंकि हवा बिलकुल स्वच्छ और निर्मल हो गई सारी सड़के शान्त है कहीं भी गाड़ी सवारी का शोर नहीं, चारों ओर एक अनोखा शांति का माहौल है और ये मौन बेजुबान इंसानों के लिए जश्न मनाने का संयोग बन कर उभरा है...
ऐसी कठिन स्थिति में हमें निराश होने की जरूरत नहीं है ऐसा नहीं है कि पहले मानव सभ्यता के इतिहास में किसी वायरस या विषाणु का हम सामना नहीं किए है..  भूतकाल में भी हम बहुत सारी महामारी का सामना कर चुके है और समय आने पर सबकी दवा और टीका का अविष्कार भी किया गया  और हम उबर भी  आए चाहे वो प्लेग हो या स्वाइन फ्लु या मलेरिया या पोलियो इस वायरस की भी दवा का इजाद होगा लेकिन तब तक हमें संयम और धैर्य से रहकर एकाकी जीवन बीताना होगा ताकि हम कोरोना रूपी जंग में जीत हासिल की जा सके.... हम जीतेंगे सारी मानवता जीतेगी, दृढ राजनीति का इच्क्षा शक्ति, चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े असंख्य लोगों का समर्पण और करोड़ों लोगों की प्रार्थना जरूर रंग लाएगी और हम जीतेंगे

रविवार, 9 अप्रैल 2017

मां रोए जा रही थी....

जिंदगी चलते जाने का नाम है रूकना नहीं चलते ही जाना इसकी फितरत है.. जो चलता रहा वो सिकंदर बन गया जो रूक गया वो निराश हो गया अपने जिंदगी की जंग हार गया.. हर कोई चलना चाहता है यहां हर किसी के अपने सपने है अपनी मंजिल है... एक अजब सी भागदौड़ है पता नहीं क्यों सब भागे जा रहे है एक के पीछे दूसरा दूसरे के पीछे तीसरा और तीसरे के पीछे चौथा.. सब दौड़ लगा रहे है पता नहीं कौन कहां जाकर रूकेगा क्या पाना चाहते है दुनिया को क्या दिखाना चाहते है.. मैं भी दिल्ली अाया था आज से लगभग 12 साल पहले हाथ में एक सुटकेस और अपना बिस्तर टांगे लिच्छवी एक्सप्रेस से... मां को रोता हुआ छोड़कर.. कितना रो रही थी मां जिस दिन मैं दिल्ली आ रहा था... नाजाने क्या डर सता रहा था उसे... वो मेरे साथ मुझे छोड़ने रेलवे स्टेशन आना चाहती थी मगर मैने मना कर दिया था... आज भी याद है जब मैने मां को सोनपुर स्टेशन से टेलीफोन किया था तो वो मेरी आवाज सुनकर रो रही थी.. पता नहीं जब से मैं घर से निकला था तब से ही वो रोए ही जा रही थी... मै भी अपने को रोक नहीं पाया और फूट फूटकर रो पड़ा था बात करते हुए... फिर जैसे तैसे ट्रेन आइ तो उसमे सवार हो गया दिल्ली आने के लिए.. रास्ता खाने बात करने और दिल्ली शहर के रोमांच में कट गया... सुबह के चार बजे दिल्ली उतरकर सबसे पहले मां को फोन किया की हम पहुंच गए सही सलामत फिर ऑटो ढूंडा और अशोक विहार आ गया... लेकिन ऑटो वाले ने हमे बीच रास्ते में ही छोड़कर चंपत हो गया.. सुबह रोड पर हम अकेले टहल रहे थे हाथ मेंं सामान लेकर... फिर किसी से पता पूछा तो पता चला की घर तो यहां से काफी दूर है तो हमने रिक्शा ले लिया...लेकिन रिक्शा पर बैठते ही मेरी काली पैंट जो मुझे बेहद पसंद थी वो फट गई.. अच्च्छा स्वागत किया था इस नए और अनजान शहर ने... खैर जैसे तैसे हम घर ढ़ुंढ कर पहुंचे फिर कुछ देर वहां रककर अपने नए आवास की ओर निकल गया... नया आवास जी नया आवास आज से यहीं रहना है यही पे पढ़ाई और यहीं से आगे का सफर तय करना है   

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

गुलाबी ये शहर... सही मायने में ये शहर गुलाबी हो ना हो लेकिन यहां के लोगों के मिजाज पूरी तरह गुलाबी है,,, उनके बोलने का अंदाज उनकी खातीरदारी तो खैर लाजवाब है ...

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

खुद को तलाशता मै ?

किधर से चले थे, किधर को हम
अब ये किधर आ गय हम
पता ही नहीं चलता की मंजिल की तलाश में कब तक भटकेंगे hum